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patna, Bihar, India
Simple Living & High Thinking

Wednesday, 17 October 2012

दिल आखिर तू क्यों रोता है ?


दिल में एक बात दबी रह गई ,
जो हसरतें थी वो अधूरी रह गई ,
लाख समझाया इस दिल को,
दिल आखिर तू क्यों रोता है ?
तेरे सपने हकीकत का रूप ले ,
ऐसी तेरी नसीब  कहाँ ?
तेरा दामन फूलों से भरा हो ,
ऐसी तेरी  नसीब  कहाँ ?
तू उस सूखे पतें की भाँति हैं ,
जो हवा के बहाव में बस बहता चला जाता हैं !
तू लाख संघर्ष कर लेकिन ---
तेरे नसीब में टूट कर बिखरना ही लिखा हैं !
जरा उन बेबस परे हुए टुकड़ो को देख 
उसमें तेरा अक्स नज़र आएगा !
जो बारम्बार यही कह रहा हैं कि ---
दिल में एक बात दबी रह गई ,
जो हसरतें थी वो अधूरी रह गई ,
लाख समझाया इस दिल को,
दिल आखिर तू क्यों रोता है ?
दिल आखिर तू क्यों रोता है ?




नन्ही -सी- जान को क्या समझ थी ?





नन्ही -सी- जान को क्या समझ थी ?
जन्म लेते ही घर में शोक हो गया
होश आने पर लोगो से अपशब्द सुनना आम हो गया !
नन्ही-सी- जान को क्या समझ थी ?
अभी तो मुझे अपनी अस्तित्व की पहचान भी नहीं थी
और लोगो ने मेरे जीवन का फैसला भी ले लिया!
जीवन को समझना शुरू ही किया था कि---
ये और एक बंधन में बन्ध गई !
नन्ही-सी- जान को क्या समझ थी ?

समाज कि रीति-रिवाजों ने ऐसी बेड़िया डाली कि---
खुली हवा में साँस लेना भी दुश्वार हो गया !
लोगो कि तरफ मैंने अपनी निगाहें फेरी पर---
किसी ने भी मुझे अपने कंधे का सहारा नहीं दिया !
नन्ही-सी- जान को क्या समझ थी ?

मैंने आवाज़ उठाई तो गैर तो गैर ,
अपने लोगो कि द्वारा भी अपमानित कि गई !
मेरी सिसकियाँ भी चारदिवारी के अन्दर दबी रह गई !
नन्ही-सी- जान को क्या समझ थी ?

मैंने बहती हवाओं से भी दोस्ती करने कि कोशिश कि पर---
उन्होंने भी मेरा दामंद छोड़ दिया !
उन्सुल्झी पहेली- सी रह गई ये जिन्दगी,
शायद फिर कभी इसे अपनाने का मन न करे!

नन्ही-सी- जान को क्या समझ थी ?
नन्ही-सी- जान को क्या समझ थी ?


Tuesday, 16 October 2012

माँ की वेदना [ कन्या - भ्रूण हत्या आधारित ]

आखिर कौन सुनेगा उस माँ की करुण  वेदना  ?
जिसे अपने खून से सिंचा ,
उसे लोगो ने लहू - लूहान कर डाला ।
जिसे ममता का आँचल देना था ,
उस पर लोगो ने कफ़न डाला ।
जिसे पालने में झूलना था ,
उस पर लोगो ने शतरंज की विषात रख दी  ।
जिसे चिड़िया की भाँति आसमां में उड़ना था,
उसके ही पड़ क़तर डाले ।
जिस पर अभिमान होना था ,
उसी पर लोगो ने अपने अहंकार का दाँव खेला।

आखिर कौन सुनेगा उस माँ की करुण  वेदना  ?
जिसकी  नन्ही कदमों के साथ चलना था ,
उसकी आहट भी लोगो ने छीन ली ।
जिससे "माँ " शब्द सुनना था ,
उसकी सिसकियाँ भी लोगो ने दफ़न कर दी ।
जिसकी धड़कन के साथ उस माँ का  दिल धड़कता था ,
उसे लोगो ने ताड़ - ताड़ कर डाला ।

आखिर कौन सुनेगा उस माँ की करुण  वेदना  ?
आखिर निर्मम  हत्या  कर इंसान कौन सी ख़ुशी पाना चाहता है?
किसी न किसी को इस सच्चाई को समझना होगा तो क्यों न शुभारंभ आप स्वयं से करे ??

Tuesday, 9 October 2012

जीवन की धारा 

जीवन की धारा में कई लोग आये और कई चले गए!
कई लोगों से उमीदें बंधी ;
तो  कई ने खिलौना समझ तोड़ डाला ।।
कई लोगों ने ख़ामोश रहकर भी सारी बातें कह दी ;
तो कई ने बहुत कुछ कहकर भी कुछ नहीं कहा ।।
कई लोगों ने दुनिया की सारी खुशिया दे दी तो कई ने उन पर ग्रहण लगा दिया ।।
जीवन की धारा में कई लोग आये और कई चले गए !
कई लोगो ने ज़िन्दगी को  जिंदादिल्ली से जिना सिखाया ;
तो कई ने इसे दर्द भरी दास्ताँ बना दिया ।।
कई लोगों ने धूप में भी छावं का एहसाश कराया ;
तो कई की छावं भी काटें की तरह चुभीं ।।
कई लोगों ने कदमों की आहट भी पह्चान ली ;
तो कई ने देखकर भी अनदेखा किया ।।
जीवन की धारा में कई लोग आये और कई चले गए!
कई लोगो ने रिश्तों को आत्मियता से निभाया ;
तो कई ने दिखावटीपन दिखाया ।।
कई लोगो ने सारी ऊम्र साथ चलने का वादा किया ;
तो कई ने बीच मज़धार में ही दामंद छुड़ा लिया ।।
कई लोगो ने आखों में सूरमे की तरह  समाया ;
तो कई ने  नीर समझ बह जाने दिया ।।
जीवन की धारा में कई लोग आये और कई चले गए!
कई लोगो ने पूर्णिमा की चांदनी का एहसाश कराया ;
तो कई ने अमावस के  काले साया का ।।
कई लोग ने चंद लम्हों में ही अपना बना लिया ;
तो कई ने समर्पण के बावजूद भी नहीं अपनाया ।।
कई लोगो ने इन नैनों में झील - सी- गहराई देखी ;
तो कई ने इन्हें बस नज़र का धोखा समझा ।।
जीवन की धारा में कई लोग आये और कई चले गए!
कई लोगो ने इस धारा में मझे अपनाया ;
तो कई ने बेगाना समझा ।।
जीवन की धारा में कई लोग आये और कई चले गए!
जीवन की धारा में कई लोग आये और कई चले गए!




Saturday, 18 August 2012

अनकही - सी - दास्तां 

जीवन में कुछ बातें ऐसी रह जाती हैं जिन्हें सिर्फ स्वयं तक ही सीमित रखनी होती हैं लेकिन उनके कारण हम जिन मुश्किलों का सामना करते है उसी को बयाँ करती है ये -------------
  अनकही - सी - दास्तां

कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं अपने आंसू को पलकों पर आने से रोकना !
अपने टूटे हुए दिल को बिखरने से रोकना ! 

और तो  और अपने गम का एहसास भी न होने देना !! 
कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं अपने उदास दिल को समझाना !
अपनी तन्हाइयो से दूर भागना !

और तो और अपनी ख़ामोशी की आहट को भी रोकना !!

कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं अपने आप को व्यक्त करना  ! 

अपनी मंजिल क नजदीक जाकर दूर हो  जाना !

 

और तो और अपनी यादों के जख्म दरकिनार कर जीवन में आगे बढ़ना !!

कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं अपनी उम्मीदों को टूटे हुए देखना !

अपने आप को रात के घने अंधरे में जाने से रोकना !

 

और तो और अपने आप को भावनओं के भँवर में डूबने से बचाना !!

कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं अपने आप को रेत के समन्दर से निकालना !

अपनी बेबसी जैर करना !

 

और तो और अपने स्वाभिमान को चोटिल होने से बचाना !!

कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं अपने आंसू को पलकों पर आने से रोकना  !

अपने टूटे हुए दिल को बिखरने से रोकना !

 

और तो और अपनी ख़ामोशी की आहट को भी रोकना !!

कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं ?

कभी - कभी कितना मुश्किल होता हैं ?

 

 

 

Monday, 19 December 2011

"माँ " मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ!









माँ, मैं वो हूँ जिसकी किलकारिया सुन तुम  कभी हँसा करती होगी !
      मैं वो हूँ जिसकी टिमटिमाती आँखों में  न जाने तुमने कितने सपने देखे होगे !
      मैं वो हूँ जिसकी स्पर्श से तुम्हारा रोम रोम पुलकित हो जाता होगा !
     मैं वो हूँ जिसने तुम्हारे जीवन को एक नया आयाम दिया होगा !

तभी तो  मैं कहती हूँ  कि--

  "माँ " मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ !
   मैं वो हूँ जिसकी नन्ही हाथों में तुमने अपना जीवन सौप दिया होगा !
   मैं वो हूँ जिसकी छोटे कदमों के साथ तुमने दुनिया कि सैर कर ली होगी !
   मैं वो हूँ जिसकी एक मुस्कान ने तुम्हारे दर्पण के तेज को और भी मनमोहक बना दिया होगा !
   मैं वो हूँ जिसकी दो पल कि नींद के लिए न जाने तुमने कितनी रातें गवाई होगी !
   मैं वो हूँ जिसकी शरारतें में  तुम जिन्दगी का अल्सफ़ा ढूँढती होगी !

 तभी तो  मैं कहती हूँ  कि--
  "माँ " मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ !

माँ, अब मैं जब बड़ी हो गई हूँ, तब  भी मुझे यही एहसास होता है कि --
      मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ !

माँ,मैं वो हूँ जिसमे तुम बसंत कि बहारे का एहसास करती हो !
       मैं वो हूँ जिसमे तुम अपना अस्तित्व देखती  हो !
       मैं वो हूँ जिसमे तुम अपना भविष्य देखती हो !
       मैं वो हूँ जिसमे तुम अपनी खुशिया देखती हो !
माँ,  मैं वो हूँ जिसमे तुम अपनी आँसू भी पी लेती हो !
       मैं वो हूँ जिसे ईश्वर ने ऐसी डोर से बाँधा है जो कभी जुदा नहीं हो सकती !
       मैं वो हूँ  जिसके प्राण तुम्हारे लिए न्योछावर है !
       मैं वो हूँ जिसकी अंतिम सासें भी तुम्हारी रिणी रहेंगी !

  तभी तो  मैं कहती हूँ  कि-
  "माँ " मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ !
  "माँ " मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ !




 



















Friday, 3 June 2011

वह सुबह कभी तो आएगी 


आज भले ही चाँद पर अमावस का साया हो,
आज भले ही सूरज की लालिमा पर बादल का साया हो, 
पर वह सुबह कभी तो आएगी !

आज भले ही पतझड़ ने मेरे जीवन से रंग चुरा लिए हो,
आज भले ही बादल के बूंदों ने मेरे ऊपर प्रहार किये हो,
पर वह सुबह कभी तो आएगी !

आज भले ही मेरी आवाज़ लोगो तक नहीं पहुँच रही हो,
आज भले ही मेरा चेरा दर्पण में धुंधला दिख रहा हो, 
पर वह सुबह कभी तो आएगी !

आज भले ही हवा के झोंके ने मेरे सपनों को अपने आगोश में समां लिया हो,
आज भले ही सागर की लहरों ने मेरी उम्मीद के किनारों पर पानी फेर दिया हो,
पर वह सुबह कभी तो आएगी !

आज भले ही चाँद पर अमावस का साया हो,
आज भले ही सूरज की लालिमा पर बादल का साया हो, 

पर वह सुबह कभी तो आएगी !!
पर वह सुबह कभी तो आएगी !!


Saturday, 14 May 2011

 हम - तुम 

        

      तुम हो तो मैं हूँ !
तुमसे ही मेरा अस्तित्व हैं |
तुम हो तो मैं जीवन की हर एक बाधा को पार कर सकती हूँ |
तुम हो तो मैं अपनी मंजिल तक पहुँच सकती हूँ|

       तुम हो तो मैं हूँ !
तुम वो हो जिसमे मैं अपना वर्तमान और भविष्य देख सकती हूँ |
तुम वो हो जिस पर मैं आँख बंद कर विश्वास कर सकती हूँ |
तुम वो हो जिसने मुझे समय के साथ चलना सिखाया |
जब कभी मैं निराश हुई तब एक तुम ही थे जिसने मुझे प्रेरणा दी आगे बढ़ने की ,  
तुमने उम्मीद जगायी सपने देखने की ,
उन्हें पूरा करने की |

         तुम हो तो मैं हूँ !
तुम सागर की वो लहर हो जिसकी आगोश में खुद को डुबो देना का जी होता हैं |
तुम बहती हवा का वो झोंका हो जिसके साथ बह जाने का जी होता हैं |
जिस तरह भँवरा बिना फूलों के नहीं रह सकता,
उसी तरह मैं और तुम एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते हैं !

           तुम हो तो मैं हूँ !
अगर तुम न होते तो ये पूर्णिमा की चांदनी,
ये तारों और जुगनूओ का टिमटिमाना सभी निरस-सी लगती |
अगर तुम न होते तो ये जिन्दगी विरान-सी लगती,
शायद इसलिए हम - तुम एक दूसरे के लिए ही बने हैं !
तभी तो  दिल बारम्बार बस यही कहता हैं क़ि -
        तुम हो तो मैं हूँ !
तुमसे ही मेरा अस्तित्व हैं| 
        तुम हो तो मैं हूँ !





                                              








Friday, 13 May 2011

आखिर क्यों ? 


आखिर क्यों जब कभी मैंने कुछ चाहा तो वो हो न सका !
जब कभी मैंने तारों के तरफ देखा तो उसने टिमटिमाना छोड़ दिया |

आखिर क्यों जब कभी मैंने चाँद से उसकी चांदनी मांगी तो उसने अमावस का कफ़न डाल दिया !
जब कभी मैंने सूरज से उसका तेज़ माँगा तो उसने मेरी आत्मा को झुलषा दिया |

आखिर क्यों जब कभी मैंने हवाओं से उसकी शीतलता माँगी तो उसने मुझे चक्रवात में लपेट लिया !
जब कभी मैंने सागर से उसकी लहरे माँगी  तो उसने मुझे भवर में समां लिया |

आखिर क्यों जब कभी मैंने विश्वास किया तो मुझे विश्वासघात ही मिला !
जब कभी मेरे आँसू निकले तो उसे नीर ही समझा गया,
जब कभी मैंने उम्मीद भरी  निगाहों से देखा तो मुझे दुनिया से हारना ही पड़ा |

आखिर क्यों जब कभी मैंने कुछ चाहा तो वो हो न सका !

आखिर क्यों ?
आखिर क्यों ??





























Sunday, 8 May 2011

ज़िन्दगी  की परिभाषा


             ज़िन्दगी क्या है?
क्या इसे परिभाषित किया जा सकता है?
एक ओर तो---
ये एक सागर लगती हैं जिसमे डूब जाने को मन होता हैं
पर वह दूसरी ओर ---
इसकी गहराई से डर भी लगता है !
एक ओर तो---
ये परमात्मा की देंन लगती हैं , शुक्रिया अदा करने का जी होता है
पर वह दूसरी ओर ---
ये बोझ का एह्साश कराती हैं!
एक ओर तो---
ये एक उन्सुलझी सी पहेली लगती हैं , सुलझाने का मन होता हैं
पर वह दूसरी ओर ---
ये न सुल्झने वाली पहेली सी लगती हैं!
एक ओर तो---
ये मेरे अस्तित्व की पहचान कराती हैं जिस पर मुझे गर्व होता हैं
पर वह दूसरी ओर ---
इस पर धुंधलापन छा जाने का डर भी लगता हैं!
शायद इतना काफी हैं इसे समझने के लिए ,
फिर भी न जाने मेरे मन में बारम्बार एक ही ख्याल क्यों आता है कि---

       ज़िन्दगी क्या है?
क्या इसे परिभाषित किया जा सकता है?

 
न जाने किस मोड़ पर खड़ी हूँ मै ?

न जाने किस मोड़ पर खड़ी हूँ मै ?
भीड़ में होते हुए भी बिल्कुल तन्हा हूँ मैं |
लोग साथ तो है फिर भी उनसे जुदा हूँ मै !!
न जाने किस मोड़ पर खड़ी हूँ मै ?
बहती हवाओं ने भी मेरा दामंद थामा,
फिर भी खुश नहीं हूँ मैं |
सागर की लहरों ने भी मुझे अपने आगोश में लिया,
फिर भी तृप्त नहीं हूँ  मैं !
न जाने किस मोड़ पर खड़ी हूँ मै ?
वृक्ष की साखों ने भी मुझे छावं दिया,
फिर भी संतुष्ट नहीं हूँ मैं |
बादल की अम्बारो ने भी प्यास बुझाने की कोशिश की,
फिर भी प्यासी रह गयी मैं !
न जाने किस मोड़ पर खड़ी हूँ मै ?
सूर्योदय की लालिमा ने भी मुझे उत्साह दिलाया,
फिर भी हतोत्साहित हूँ मैं |
पूर्णिमा की चांदनी ने भी मुझे अपनी सिलवटो में लिया,
फिर भी  जागी रह गयी मैं!
न जाने किस मोड़ पर खड़ी हूँ मै ?
लोग के  साथ रहते हुए भी  जुदा हूँ गयी मै!! 
न जाने किस मोड़ पर खड़ी हूँ मै?